Saturday, October 27, 2007


सफल हो कर तुम दिखलाओ

अडचने तो आती हैं राह में
आगे बढ कर दिखलाओ
गलत राह पर अगर चलोगे
काँटे ही होंगे राहों में
फूल अगर तुमको पाना है
सच्चाई से राह बनाओ
अपनी ही तुम कलम उठाओ
और लिखो अपनी परिभाषा

भटक गये जो राह कभी तुम
नही संभल फिर पाओगे
दाग लगी चूनर को तुम
किस दरिया में धो आओगे
ख्वाब कब्र फिर बन जायेंगे
आँसू बन फिर बह जायेंगे

जीना क्या पोली उम्मीदें
आँखें खोलो भूलो नींदें
अंत हरईक मुश्किल का होगा
संदल बन कर तुम दिखलाओ
सफल हो कर तुम दिखलाओ...

*** रितु रंजन प्रसाद

Thursday, October 11, 2007

फिर मैं ही हूँ....



साथी हो तो साथ दो
सुख के साथी तुम, तो दुख का कौन?
हँसी में तुम तो गम में कौन?

मेरे तो तुम्ही सब कुछ
गीता और रामायण भी तुम
अगला जन्म भी तुम
शब्द भी तुम
अर्थ भी तुम
सवाल भी जवाब भी तुम

भागो, किंतु जाओगे कहाँ
तुम्हारे भीतर की आँखें जो मेरी है
करेंगी पीछा तुम्हारा
भटकते रहोगे तुम
खुशी की चाह में
परबत/दरिया और मरुथल
पर मत भूलो कि कडी धूप में
तुम्हारे लिये पानी की पहली बूँद
फिर मैं ही हूँ।

*** रितु रंजन प्रसाद

Tuesday, October 2, 2007

शून्य में


टूटा है दिल
फेविकोल से चिपका लो
चाहो तो रफू करवा लो
चादर से उसे ढक दो
पर दिखने मत दो..

दरारो में दीमक लग जाते हैं
फिर कोई सुई काम ना आएगी
न ही गोंद कोई
बाहर तेज रोशनी हैं
आँखे रोशनी मे भी हो जाती हैं अंधी
खो जाएगा रिश्ता
या फिर बेमानी हो जाएगा तब
कटघरे में खडे तुम और हम
गुमशुदा रिश्ते पर केवल कीचड उछालेंगे
पीठ के पीछे लोगों की हँसी
और हासिल कुछ भी नहीं

और फिर शून्य में तनहाईयाँ बोते रहेंगे
अपनी लाश ढोते रहेंगे।

*** रितु रंजन प्रसाद