Tuesday, October 2, 2007

शून्य में


टूटा है दिल
फेविकोल से चिपका लो
चाहो तो रफू करवा लो
चादर से उसे ढक दो
पर दिखने मत दो..

दरारो में दीमक लग जाते हैं
फिर कोई सुई काम ना आएगी
न ही गोंद कोई
बाहर तेज रोशनी हैं
आँखे रोशनी मे भी हो जाती हैं अंधी
खो जाएगा रिश्ता
या फिर बेमानी हो जाएगा तब
कटघरे में खडे तुम और हम
गुमशुदा रिश्ते पर केवल कीचड उछालेंगे
पीठ के पीछे लोगों की हँसी
और हासिल कुछ भी नहीं

और फिर शून्य में तनहाईयाँ बोते रहेंगे
अपनी लाश ढोते रहेंगे।

*** रितु रंजन प्रसाद

11 comments:

शैलेश भारतवासी said...

क्या बात है मैडम!

पहली बार में ही शतक। यह एक दिन का अभ्यास नहीं लगता। अच्छा है, कवयित्रियों की संख्या भी बढ़े तभी कविता पूर्ण होगी (आधी दुनिया की कविता आखिर आप ही तो लिखेंगी)।

राजीव रंजन प्रसाद said...

बहुत अच्छी कविता है बल्कि कहीं से भी यह नयी कलम का लेखन नहीं प्रतीत होता। जिन बिम्बों का यहाँ प्रयोग हुआ है जैसे:


फेविकोल से चिपका लो
चाहो तो रफू करवा लो
चादर से उसे ढक दो
पर दिखने मत दो.. दरारो में दीमक लग जाते ह

बाहर तेज रोशनी हैं
आँखे रोशनी मे भी हो जाती हैं अंधी

प्रसंशनीय रचना।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Gaurav Shukla said...

रितु जी,

अभिनन्दन,
अभी कुछ टिप्पणियों से लगा कि यह कविता एक नयी लेखनी से निकली है, शायद मैं दुविधा में हूँ क्योंकि ऐसे सशक्त बिम्ब नयी लेखनी से कैसे?

"दरारो में दीमक लग जाते हैं"

"आँखे रोशनी मे भी हो जाती हैं अंधी"

"कटघरे में खडे तुम और हम
गुमशुदा रिश्ते पर केवल कीचड उछालेंगे
पीठ के पीछे लोगों की हँसी
और हासिल कुछ भी नहीं और फिर शून्य में तनहाईयाँ बोते रहेंगे
अपनी लाश ढोते रहेंगे।"

कविता का सम्पूर्ण अंत ही कविता का प्राण होता है, जिसे आपने बडी सबलता से सहेज लिया है
बहुत सुन्दर बिम्ब, सशक्त भाव आपकी कविता को और प्रभावी बना देते हैं
स्पर्श किया कविता ने
अद्भुत रचना के लिये हार्दिक बधाई
ऐसी ही अगली रचना की प्रतीक्षा में

सादर
गौरव शुक्ल

अभिषेक सागर said...

रितु जी,
बहुत अच्छी कविता। नये विचारो के साथ नये भाव आपने बहुत सुंदर उकेरी है। लगता ही नही आपकी यह पहली कविता है....

Mohinder56 said...

रितू जी,
स्वागत है आप का ब्लोगर्स की दुनिया में...
मेरा यह मानना कि दिल में उठते हुये विचार या जीवन के जिये पलों की अनुभुति ही कविता है...सच प्रतीत होता है..
सुन्दर कविता के लिये बधाई.... इसे जारी रखें

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत सुन्दर कविता है। आपने सरल शब्दों में जैसे रस की धार उडेल दी है। मैं सोच रहा था कि कविता की विशेष पंक्तियों को छांट कर उनकी बधाई दूं। पर आपकी तो पूरी ही कविता लाजवाब है। उम्मीद करता हूं ऐसी ही जोरदार रचनाएं आगे भी पढने को मिलती रहेंगी।

विपुल said...

वाह मज़ा आ गया.. युग्म पैर की गयी टिप्पणी से ब्लोगेर प्रोफाइल मिली और फिर आपका ब्लॉग .. मेहनत सफल भी हुई जब इतनी अच्छी कविता पढ़ने को मिली ..
क्या बात है !
"दरारो में दीमक लग जाते हैं"

"आँखे रोशनी मे भी हो जाती हैं अंधी"

बधाई......

विश्व दीपक said...

फेविकोल से चिपका लो
चाहो तो रफू करवा लो
चादर से उसे ढक दो

दरारो में दीमक लग जाते हैं

आँखे रोशनी मे भी हो जाती हैं अंधी

कटघरे में खडे तुम और हम
गुमशुदा रिश्ते पर केवल कीचड उछालेंगे

शून्य में तनहाईयाँ बोते रहेंगे
अपनी लाश ढोते रहेंगे।

रितु जी,
आपकी कविता से अपने पसंदीदा वाक्य चुनने की मैने जो गुस्ताखी की , उसकी सजा मुझे मिल गई। अमूमन पूरी की पूरी कविता मैने कापी कर ली है।
शैलेश जी ने सच कहा है कि आपने अपनी पहली हीं कविता में शतक जड़ दिया है। अब इस बात से आपको डरने की भी जरूरत है, क्योंकि अपेक्षाएँ बढ गई हैं।
नए बिंबों का आपने जिस तरह से प्रयोग किया है , वह काबिले-तारीफ है।
अगली कविता के इंतजार में-
विश्व दीपक 'तन्हा'

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

मुझसे पहले आ चुके साथियों के रिमार्क्स को मेरे ही रिमार्क्स समझ लें..........सब के कमेन्ट जोड़ लें तो ये मेरा ही कमेन्ट बन जायेगा...असल में मैं ये सब पहले ही कहने वाला था...मगर आलस हैं ना बुरी बला....सो....इन्होने मेरे सोचे गए विचारों की चोरी कर ली...........!!

Divya Narmada said...

सहज-सरल अभिव्यक्ति ही, कविता का आधार.
जो इसमें डूबा वही, हो पाता है पार.

आप भाव को दे सकीं, नवल बिम्ब, नव शब्द.
सार्थकता यह सृजन की, होता ध्वनित निशब्द.

Sudha Devrani said...

फिर शून्य मे तन्हाइयाँ बोते रहेंगे
अपनी लाशें ढोते रहेंगे
मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ बहुत खूब